Friday, July 27, 2007

तुम्हारी आंखों में

कभी चमकती हैं सम्भावनाओं से , सफ़लता से, प्रसन्नता से,
प्रियजनों से मिलकर
या जब पहली बार खुद से “bubbles” बनाया
अनगिनत प्रश्न भी दिखते हैं…।
सूरज क्यों रोज निकलता है…
पृथ्वी का अपनी धुरी चक्कर क्यों लगाती है? आज ठंड क्यों है?
अश्रुपुर्ण होती हैं कभी दुख से या फिर घडियाली आंसू होते हैं…।
खाने में मिर्च थी,
पार्क् से घर जाने का समय हो गया है…
और अभी सोने का मन नही है
क्रोध तो क्या कहना…
अक्सर एक “fruit leather (अमावट या आम- पापड) ” से शान्त हो जाता है…।
क्रोध और विवशता में बडी ही बारीक सीमा रेखा होती है।
निराशा भी दिखती है जब “ice-cream में coffee ”होती है और कहते हो “just ice-cream, no coffee”
और भी बहुत सारे भाव दिखते हैं …
तुम्हारी आंखों में
मेरे जीवन की तुम सम्भावना हो
याद दिलाते हो की निरनतर प्रयासरत रहना ही
मानव का कर्म है…।
मानव का धर्म है…।

तुम्हारी आंखों में

कभी चमकती हैं सम्भावनाओं से , सफ़लता से, प्रसन्नता से,
प्रियजनों से मिलकर
या जब पहली बार खुद से “bubbles” बनाया
अनगिनत प्रश्न भी दिखते हैं…।
सूरज क्यों रोज निकलता है…
पृथ्वी का अपनी धुरी चक्कर क्यों लगाती है? आज ठंड क्यों है?
अश्रुपुर्ण होती हैं कभी दुख से या फिर घडियाली आंसू होते हैं…।
खाने में मिर्च थी,
पार्क् से घर जाने का समय हो गया है…
और अभी सोने का मन नही है
क्रोध तो क्या कहना…
अक्सर एक “fruit leather (अमावट या आम- पापड) ” से शान्त हो जाता है…।
क्रोध और विवशता में बडी ही बारीक सीमा रेखा होती है।
निराशा भी दिखती है जब “ice-cream में coffee ”होती है और कहते हो “just ice-cream, no coffee”
और भी बहुत सारे भाव दिखते हैं …
तुम्हारी आंखों में
मेरे जीवन की तुम सम्भावना हो
याद दिलाते हो की निरनतर प्रयासरत रहना ही
मानव का कर्म है…।
मानव का धर्म है…।

Wednesday, July 25, 2007

च महोदय/महोदया

नीलिमाजी कई पोस्ट पर एक बेनाम भIई-बहन (चलिये इन्का नाम च रख लेते हैं) ने टिप्पणी की है और ये पोस्ट उसी से प्रेरित है।
तो च ने भाषा की मर्यादा(?) बनाये रखते हुये कई ऐसे संग्याओं का प्रयोग किया जिससे ये तो स्पष्ट हो गया है कि उन्हे नीलिमा जी की रचना से शिकायत नही बल्कि कोइ और शिकायत है। अब अनुमान लगाया तो लगता है कि उन्हे शिकायत शायद विषय से है या फिर इस बात से कि लेखिका (नीलिमाजी) ने अपने को रचनाकार मान लिया। वैसे पता नही कब नीलिमा जी ने ये दावा किया…॥

कुछ दिन पहले मसिजीवीजी ने blog और उससे जुडी हुयी मानसिकता के बारे में लिखा था। जहां हर कोई अपना विचार अभिव्यक्त करने को स्वतन्त्र है वहीं कई लोग समाज और नैतिक मूल्यों की सुरक्षा के लिये भी तैयार मिलेंगे। इस सन्दर्भ में सहित्य की सुरक्षा के लिये।

च की बात समझ में आती है और इस बात को स्त्री-पुरुष का रंग देना मेरा औचित्य नही है। तो कुछ हुआ, नीलिमाजी ने अपने विचार व्यक्त किये और च महोदय/महोदया ने नीलिमाजी के विचारों पर अपने विचार व्यक्त किये। वैसे अगर आप अनाम हों तो आप्की स्वतन्त्रता और भी बड जाती है। देखिये, कब हमें च के बारे में और जानने का सौभग्य मिलता है।

Friday, July 20, 2007

सत्तू और बुकनी…।

मेरे शहर में कयी पुराने नीम और पीपल के पेड थे…।हर साल के तूफ़ान में एक-एक करके गिर जाते हैं। पहलेए school के बाहर, काला चूरन ठेले पर बिकता था … साथ में कैथा और अमरक्…mummy कहती थी कि काला चुरन सेहत के लिये अच्छा नही है…।school में जामुन और इमली का पेड होता था…। school के एक कोने में एक पुराना सुखा कुआ था…।कभी किसी के उसमें गिरने का समाचार नही मिला था…नाश्ते में अक्सर लाई – चना मिलता था…।कभी – कभी सीताराम या फिर गुप्ता जी की चाट खाने को मिलती थी…। शिवकुटी के मेले में अनरसा मिलता था…। school में बाथरूम नही होता था। पानी के लिये बडी कतार लगती थी अक्सर पानी आता ही नही था…
नानी हर गुडिया के मेले में हरी चूडियां दिलाती थी। अक्सर लोग dinner या lunch पर नही आते थे, बल्की पुरे दिन के लिये आपके घर पर होते थे। मा सबके लिये खाना बनाती थी, फिर नाश्ता, फिर और आवभगत्…।
पहले लोग आराम से पापा की तन्ख्वाह पूछते थे…।मा से पूछ्ते थे कि दो बच्चों के बाद आब तीसरा क्यों नही…बडे आराम से लोग आपको बता देते थे की आप को क्या करना चाहिये…किसी भी समस्या का सबके पास समाधान भी होता था……
ऐसा नही है कि अब सब अच्छा नही है…अभी भी सब सुन्दर है…बस आज पुराने दिन याद आ गये

Thursday, July 19, 2007

Why I like Harry Putter....

सुजाता जी के ब्लॉग पर टिप्पणी लिखने के बाद मैने सोचा कि मुझे हरी पुत्तर कि किताबों में क्या अच्छा लगा?
उसे कार के ईंधन के लिये पेट्रोल नही चहिये, दुनिया में शान्ति बढेगी अगर पेट्रोल का उपभोग कम होगा…
शायद ये कि वह स्वयम बहुत अच्छा जादूगर है, पर उसे बचाने के लिये बहुत सारे लोग लगे हैं…
या फिर मुझे हेर्मोइने का चरित्र ज्यादा भाता है…
या फिर लेखिका के जीवन से प्रभावित हूं…
या फिर हरि अपनी ट्रेन यात्रा में तरह तरह कि अजीब मिठायी खाता है…
या कि हरि फिरन्गी है…(अरे फिरन्गी ने लिखा है)
या फिर मेरे अन्दर का बच्चा कल्पनिक दुनिया को “enjoy” करता है…
या फिर हम सभी एक जादूगर को ढूंढ रहे हैं